प्राकृतिक संसाधन(Natural resources)
भूमि संसाधन(Land resources)
➨भूमि एक बहुत महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है |
प्राकृतिक वनस्पति ,वन्य-जीवन ,मानव जीवन ,आर्थिक क्रियाएँ ,पौवहान , संचार-व्ययवस्थाएँ भूमि पर ही आधारित है,भूमि एक सीमित संसाधन है |
*भूमि संसाधन के कई भौतिक स्वरुप है |
जैसे :- पर्वत ,पठार ,मैदान ,निम्नभूमि और घाटियाँ इत्यादि
*मृदा निर्माण(Soil formation) :- मृदा पारितंत्र का एक महत्वपूर्ण घटक है,असंगठित पदार्थो से निर्मित पृथ्वी की सबसे ऊपरी पतली परत मृदा कहलाती है | मृदा निर्माण एक लम्बी अवधि में पूर्ण होने वाली जटिल प्रक्रिया है |
कुछ सेंटीमीटर गहरी मृदा के निर्माण में लाखो वर्ष लग जाते है | चट्टानों के टूटने-फूटने तथा भौतिक ,रासायनिक और जैविक परिवर्तनों से मृदा निर्माण होता है |
मृदा के प्रकार(Types of soil)
*मृतिका(Clay):- 2 माइक्रोन से छोटे व्यास वाले कणों वाले अवसादी शैलों को मृतिका कहते है |
→यह मुख्यतः एल्युमीनियम के सिलिकेट एवं बहुसिलिकेट का मिश्रण है |
→मृतिका मुख्यतः भूरे रंग की होती है,और यह नदियों के किनारों पर देखने को मिल सकती है |
*जलोढ़ मृदा(Alluvial soil):- उत्तर भारत का मैदान पूर्णतः जलोढ़ निर्मित है ,जो हिमालय की तीन महत्वपूर्ण नदी सिंधु ,गंगा और ब्रह्मपुत्र द्वारा लाये गए जलोढ़ के निक्षेप से बना है | और जलोढ़ मिट्टी का गठन बालू ,सिल्ट एवं मृतिका के विभिन्न अनुपात से होता है | इसका रंग धुंधला से लेकर लालिमा लिए हुए भूरे रंग का होता है | इस मृदा का विस्तार भारत में लगभग 6.4 करोड़ हेक्टेयर पर है |
जलोढ़ मृदा में पोटाश ,फास्फोरस और चुना जैसे तत्वों की प्रधानता होती है,लेकिन इसमें नाइट्रोजन एवं जैव पदार्थो की कमी रहती है | इस मिट्टी में गन्ना ,चावल ,गेंहू ,मक्का ,दलहन जैसी फसलों के लिए उपयुक्त होती है |
➤आयु के आधार पर जलोढ़ मृदा दो प्रकार है |
(i)पुराना जलोढ़ (ii)नवीन जलोढ़
*बांगर :- जब पुराने जलोढ़ में कंकड़ एवं बजरी की मात्रा अधिक होती है,तो इसे बांगर कहा जाता है |
*खादर :- जब नवीन जलोढ़ में महीन कण पाए जाते है,तो उसे खादर कहते है |
Note :-उत्तर बिहार में बालू प्रधान जलोढ़ को दियारा भूमि कहते है | और यह भूमि मक्का की कृषि के लिए विश्व प्रसिद्ध है |
*काली मृदा(Black soil) :- इस मिट्टी का निर्माण मूल शैलों एवं ज्वालामुखी के वेसाल्ट लावा के विघटन से हुआ है | जो खास तौर पर दक्कन के लावा प्रदेश महाराष्ट्र ,गुजरात ,कर्नाटक ,आंध्रप्रदेश तथा तमिलनाडु राज्यों में विस्तार है | जो भारत में लगभग 6.4 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर फैली हुई है | इस मृदा का स्थानीय नाम 'रेगुर' भी है |
इस मिट्टी में उपस्थित एल्युमीनियम एवं लौह यौगिक के कारण इसका रंग काला होता है |
यह कपास की खेती के लिए सर्वाधिक उपयुक्त मानी जाती है ,और इसे 'काली कपासी मृदा' के नाम से भी जाना जाता है |
इस मृदा में कैल्सियम कार्बोनेट ,मैगनीशियम ,पोटाश और चुना जैसे पौष्टिक तत्वों परिपूर्ण होती है ,लेकिन फास्फोरस की कमी रहती है |यह मिट्टी गन्ना ,प्याज ,गेहूं एवं फलों की खेती के लिए अनुकूल मानी जाती है |
*लाल एवं पिली मृदा(Red and yellow soil) :- इस मृदा का विकास प्रायद्वीपीय पठार के पूर्वी एवं दक्षिणी हिस्से में रवेदार आग्नेय चटानों द्वारा सामान्यतः 100 Cm से कम वर्षा वाले क्षेत्रों हुआ है | जो खास तौर पर इस मृदा का प्रसार तमिलनाडु ,कर्नाटक ,गोवा ,उड़ीसा जैसे क्षेत्रो में है | इसका विस्तार कुल कृषि भूमि के 7.2 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर है |
इस मृदा में लौहांश की मात्रा के कारण इसका रंग लाल होता है,और जलयोजन के पश्चात् यह मृदा पिले रंग की हो जाती है |
इस मृदा में सिंचाई की व्यवस्था कर चावल ,मक्का ,मूंगफली ,तम्बाकू और फलों का उत्पादन किया जा सकता है |
इस मृदा में सिंचाई की व्यवस्था कर चावल ,मक्का ,मूंगफली ,तम्बाकू और फलों का उत्पादन किया जा सकता है |
*लैटेराइट:- लैटेराइट शब्द की उत्पति ग्रीक भाषा के लैटर(Later)शब्द से हुआ है,जिसका शाब्दिक अर्थ 'ईंट' होता है |
*लैटेराइट मृदा(Laterite soil):- इस मिट्टी का विकास उच्च तापमान एवं अत्यधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में हुआ है | इस मिट्टी का विस्तार कर्नाटक ,केरल ,तमिलनाडु ,ओडिशा ,असम जैसे राज्यों में हुआ है | भारत में इस मृदा का विस्तार 1.3 करोड़ हेक्टेयर से भी अधिक भू - भाग पर है |
एलीमुनियम और लोहे के ऑक्साइड के कारण इसका रंग लाल होता है |
इस मिट्टी में कर्नाटक ,केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में मृदा संरक्षण तकनीक के सहारे चाय एवं कहवा का उत्पादन किया जाता है | तमिलनाडु ,आंध्रप्रदेश और केरल में इस मृदा में काजू की खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है |
इस मिट्टी में कर्नाटक ,केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में मृदा संरक्षण तकनीक के सहारे चाय एवं कहवा का उत्पादन किया जाता है | तमिलनाडु ,आंध्रप्रदेश और केरल में इस मृदा में काजू की खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है |
*मरुस्थलीय मृदा(Desert soil) :- इस मृदा का विकास लम्बी शुष्क ऋतू ,अल्प वर्षा ,ह्यूमस रहित बालुई मिट्टी वाले क्षेत्रो में होती है | इस प्रकार की मृदा प० राजस्थान,सौराष्ट्र ,कच्छ ,प० हरियाणा और द० पंजाब में पायी जाती है |
इस मृदा का रंग लाल या हल्का भूरा होता है | इसमें सिंचाई की व्यवस्था कर कपास ,चावल ,गेंहू का उत्पादन किया जा सकता है |
*पर्वतीय मृदा(Mountain soil):- इस प्रकार की मृदा प्रायः पर्वतीय और पहाड़ी क्षेत्रों में देखने को मिलती है | जँहा पर्याप्त वर्षा -वन पाए जाते है | यह नदी घटिया में जलोढ़ मृदा एवं ऊँचे भागों में मोटे -कणो वाली अपरिपक़्व मृदा के रूप में पायी जाती है ,लेकिन यँहा एक ही प्रकार के मृदा के बड़े -बड़े क्षेत्र नहीं मिलते है |
यँहा ढलानों पर फलों के बगान एवं नदी -घाटी में चावल एवं आलू का लागभग सभी क्षेत्रो में उत्पादन किया जाता है |
*भू -उपयोग के दो प्रमुख कारक निर्धारित करते है :-
(i)भौतिक कारक :-भू-आकृति ,जलवायु तथा मृदा को सम्मलित किया जाता है |
(ii)मानवीय कारक :-जनसंख्या घनत्व ,प्रोधोगिक-क्षमता ,संस्कृति ,एवं परंपरा इत्यादि शामिल किया जाता है |
➤भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र 32.8 लाख वर्ग Km के मात्र 93% भाग का ही भूमि उपयोग का आकड़ा उपलब्ध है | जम्मू कश्मीर के पाक-अधिकृत तथा चीन अधिकृत भूमि का भू- उपयोग सर्वेक्षण नहीं हो पाया है |
*भू -उपयोग के दो प्रमुख कारक निर्धारित करते है :-
(i)भौतिक कारक :-भू-आकृति ,जलवायु तथा मृदा को सम्मलित किया जाता है |
(ii)मानवीय कारक :-जनसंख्या घनत्व ,प्रोधोगिक-क्षमता ,संस्कृति ,एवं परंपरा इत्यादि शामिल किया जाता है |
➤भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र 32.8 लाख वर्ग Km के मात्र 93% भाग का ही भूमि उपयोग का आकड़ा उपलब्ध है | जम्मू कश्मीर के पाक-अधिकृत तथा चीन अधिकृत भूमि का भू- उपयोग सर्वेक्षण नहीं हो पाया है |
मृदा अपरदन और संरक्षण
*मृदा अपरदन(Soil erosion) :- मृदा के कटाव और वहाव की प्रक्रिया को मृदा अपरदन कहते है |
जिसके मुख्य कारण है :-सघन कृषि ,अति पशुचारण ,भवन निर्माण और अन्य प्रकार की मानव क्रियाएँ |
➤मृदा अपरदन से मरुस्थल बनने का खतरा है |
जिसके मुख्य कारण है :-सघन कृषि ,अति पशुचारण ,भवन निर्माण और अन्य प्रकार की मानव क्रियाएँ |
➤मृदा अपरदन से मरुस्थल बनने का खतरा है |
*मृदा संरक्षण(soil Conservation) :- मृदा अपरदन को रोकने के लिए मृदा संरक्षण की आवश्यकता है | इसके लिए कई उपाय किया जा सकते है | पेड़ो की जड़े मृदा की ऊपरी परत को बचाये रहती है ,इसीलिए वनरोपण से मृदा संरक्षण किया जा सकता है | ढाल वाली जगहों पर समोच्च जुताई(Contour Ploughing) से मृदा के अपरदन को रोका जा सकता है | पवन अपरदन वाले क्षेत्रो में पट्टिका कृषि(Strip Forming)श्रेयस्कर है,जो फसलों के बीच घास की पट्टिका विकसित करने पर आधारित है |
रसायन का उचित उपयोग कर मृदा का संरक्षण किया जा सकता है |
*समोच्य कृषि(Contour agriculture) :- यह कृषि की एक विधि है जिसमे किसान ढलान के क्षेत्र में पंक्ति तथा बांध बनाकर खेती करता है |
इस तरह खेती करने का सबसे बड़ा फायदा यह होता है की इससे पानी का प्रवाह का कोई प्रभाव तथा मिट्टी का कटाव भी नहीं होता है |
*जलाक्रांतता(Water Logging):-अति सिंचन से जलाक्रांतता की समस्या पैदा होती है ,जिसमे मृदा में लवणीय और क्षारीय गुण बढ़ जाती है |
पंजाब ,हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में अधिक सिंचाई से भूमि का निम्नीकरण हुआ है |
*फसल-चक्र(Crop circle) :- किसी निश्चित भूमि में निश्चित समय वाली फसलों को लगातार अदल-बदल कर बोना ही फसल चक्र कहलाता है |
जो मृदा के पोषणीय स्तर को बरक़रार रखता है |
जैसे की :-गेहूं ,कपास आलू आदि के लगातार उगाने से मृदा में ह्यस उत्पन्न होता है | और तिलहन-दलहन पौधा की खेती के द्वारा पुनप्राप्ति किया जा सकता है | जो मृदा संरक्षण में सहायक होता है |
➤एंड्रिन नामक रसायन मेढक के प्रजनन को नष्ट कर देता है और कीटो की संख्या बढ़ा देता है |
➤भारत पशुधन के मामले में विश्व के अग्रीण देशो में शामिल किया जाता है |
1 टिप्पणियाँ
Very useful sir in this lockdown
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