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Ex:-5 नियंत्रण एवं समन्वय


 नियंत्रण एवं समन्वय

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BSEB Notes for class 10th Science Biology Control and coordination (नियंत्रण और समन्वय ).यह नोट्स Class 10th के विद्यार्थियों के लिए बनया गया है। इस नोट्स(Notes) में हम Control and coordination (नियंत्रण और समन्वय ) के बारे में जानेंगे। इस नोट्स Notes  को सभी Topic को ध्यान में रखकर बनाया गया है। जिससे  Class 10th के बच्चों को पढ़ाई करने में मदद मिल सके।
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* उद्दीपन(Stimulation) :- बात संवनाओं के द्वारा व्यक्ति या जीव के शरीर के अंदर जो परिवर्तन या कमी आती है, उसे उद्दीपन कहते है।
जैसे :- मिठाई देखकर मूँह में पानी आना।
* अनुवत्ति गति (Tropic Movement) :- पेड़ - पौधे जिस क्षेत्र से बाह्य उद्दीपन को ग्रहण करता है उसी क्षेत्र की ओर मूड - मूड कर वृद्धि करने की प्रक्रिया को अनुवत्ति गति कहते है।
ये मुख्यत: चार प्रकार के होते है।
(i) प्रकाश - अनुवर्त्तन (Photoropism)
(ii) गुरुत्वानुवर्त्तन (Geotropism)
(iii) रासायनिक अनुवर्त्तन (Chemotropism)
(iv) जलानुवर्त्तन (Hydrotropism)
(i) प्रकाश - अनुवर्त्तन :- इस प्रकार की गति में पेड़ - पौधे के कुछ भाग सूर्य के प्रकाश को ग्रहण कर उसी दिशा की ओर मूड -मूड कर वृद्धि करता है तो उसे प्रकाशानुवर्त्तन कहते है।
जैसे :- तना, पत्ती, फूल।
(ii) गुरुत्वानुवर्त्तन :- पौधे के कुछ भाग गुरुत्व को ग्रहण कर उसी गुरुत्व की ओर वृद्धि करता है तो उसे गुरुत्वानुर्त्तन कहते है।
जैसे :- जड़।
(iii) रासायनिक अनुवर्त्तन :- यह गति रासायनिक उद्दीपनों के कारण होता है, इसमें परागन के समय परागन से निकलने वाली परागनलिका के विजाड़ में होने वाली गति रासायनिक अनुवर्तन कहते है।
जैसे :- फूलों में परागन।
(iv) जलानुवर्त्तन :- पौधे के अंगों का जल की ओर होने वाली गति जलानुवर्त्तन कहते है।
जैसे :- जड़।
 पौधों में रासायनिक समन्वय :-
* पादक हार्मोन :- पेड़ - पौधे जिन रसायनिक पदार्थो को ग्रहण कर वृद्धि एवं विकास करता है तथा अपने-आप को नियंत्रित करता है तो उसे पादक हार्मोन कहते है।
ये मुख्यत: पाँच प्रकार के होते है।
1. ऑक्जिन  (Auxin)
2. जिबरेलिन्स (Gibberellins)
3. साइटोकाइनिन (Cytokinin)
4. ऐबसिसिक एसिड (Abscisic Acid)
5. एथिलीन (Ethylene)
1. ऑक्जिन  :- इस पादप हार्मोन का खोज चार्ल्स डार्विन के द्वारा 1880 ई० में किया गया था l यह इण्डोल Acetic Acid के रूप में पाया जाता है
  कार्य :-
(i) यह कोशिका विभाजन तथा कोशिका - दीर्घन में मदद करता है
(ii) यह तने के वृद्धि सहायक है
(iii) यह अनिषेचित फल के उत्पादन में सहायक होता है।
(iv) यह फलों को पकने से पूर्व गिरने से रोकता है।
(v) बीजहीन फलों के उत्पादन में मदद करता है।
(vi) यह खर - पतवार नासक का कार्य करता है।
(vii) यह कलम रोपाई में मदद करता है।
2. जिबरेलिन्स  :- इस पादक हार्मोन का खोज 1926 ई० में कुरासोवा के द्वारा किया गया था।  यह जिवरोलिन्स अम्ल के रूप में पाया जाता है। अभी तक सौ जिवरोलिन्स अम्ल का खोज हो चूका है। इसे मुर्ख पादक हार्मोन कहा जाता है।
 कार्य :-
(i) यह ऑक्सीजन के समान कोशिका विभाजन एवं कोशिका - दीर्घन में मदद करता है।
(ii) यह  बौने पौधे  को लम्बे करने में मदद करता है।
(iii) इसके द्वारा फूलों को खिलने एवं फल बनने की क्रिया में लगाने वाले समय  को कम किया जाता है।
(iv) यह बीजों को प्रसुप्ती भंग कर अंकुरित होने के लिए प्रेरित करता है।
(v) इसके छिड़काव से वृह्त आकार के फल एवं फूल का उत्पादन किया जाता है।
3. साइटोकाइनिन :- इस पादक हार्मोन का खोज मिलर के द्वारा 1955 ई० में किया गया था। यह ऑक्जीन एवं जिवरोलिन्स के तरह काम करता है।
 कार्य :-
(i) यह भी कोशिका विभाजन एवं कोशिका - दीर्घन में मदद करता है।
(ii) यह पौधों में क्लोरोफिल की मात्रा को लम्बे समय तक बनाये रखने में मदद करता है।
(iii) यह पौधों में जीर्णता के लक्षण को विलम्बित करता है।
4. ऐबसिसिक एसिड :- इस पादक हार्मोन का खोज 1961 - 1965 के बीच कॉन्स एवं एडिकोट के द्वारा किया गया था।  यह वृद्धि रोधक हार्मोन है।
कार्य :-
(i) यह ऑक्जिन एवं जिबरेलिन्स के विपरीत कार्य करता है।
(ii) यह पौधों में क्लोरोफिल की मात्रा को नष्ट कर पत्तियों के विलग्नता को बढ़ाता है।
(iii) यह बीजों को अंकुरित होने से रोकता है।
(iv) सूखे के स्थिति में रंध्रों को बंद होने के लिए प्रेरित करता है। ताकि वाष्पोत्सर्जन की क्रिया कम हो।
4. एथिलीन :- इस पादक हार्मोन का खोज 1962o में वर्ग के द्वारा किया गया था। यह एक मात्र पादक हार्मोन है जो गैसीय अवस्था में पाया जाता है
कार्य :-
(i) यह फलों को पकने में मदद करता है इसीलिए इसे फल पकाने वाला हार्मोन कहा जाता है।
(ii) यह पादप पुष्पों की संख्या में वृद्धि करता है।
(iii) पत्तियों, पुष्पों व फलो के विलग्न को प्रेरित करता है।
* अन्य पादप हार्मोन :-
(i) फ्लोरीजेन्स :- यह फूलों को खिलने में मदद करता है इसीलिए इसे फूल खिलाने वाला हार्मोन कहा जाता है।
(ii) टाऊमैटिन :- यह पौधों में हुए खड्ढ़ो व जख्मो को भरने में मदद करता है।

 जंतुओं में नियंत्रण और समन्वय

जंतुओं में नियंत्रण और समन्वय निम्नांकित दो प्रकार के होते है।
1. रासायनिक नियंत्रण एवं समन्वय (Chemical control and coordination)
2. तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय (Nervous control and coordination)
1.  रासायनिक नियंत्रण एवं समन्वय :- जो नियंत्रण एवं समन्वय की क्रिया रासायनिक पदार्थों द्वारा होता है उसे रासायनिक नियंत्रण एवं समन्वय कहते है।
2. तंत्रिकीय नियंत्रण एवं समन्वय 
(i) तंत्रिका उत्तक :- समस्त अंगो व कार्यो में सामंजस्य स्थापित का तंत्रिका उत्तक की प्रमुख विशेषता है। मस्तिष्क मेरुरज्जु एवं स्वयं तंत्रिकाएँ, तंत्रिका उत्तक की बनी होती है। यह इसकी इकाई न्यूरॉन होती है। यह मानव शरीर शरीर के अंदर सबसे लम्बी कोशिका होती है।
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तंत्रिका उत्तक के तीन भाग होते है।
(1) तंत्रिका कोशिका
(2) तंत्रिका तंतु
(3) न्यूरोग्लिया
(1) तंत्रिका कोशिका :- तंत्रिका कोशिका के भी तीन भाग होते है।
(a) साइट्रॉन
(b) डेड्रॉन
(c) एक्सॉन
 (a) साइट्रॉन :- यह तंत्रिका कोशिका का सबसे प्रमुख भाग है। इसका आकार तारे के समान होता है। उसमे एक केन्द्रक पाया जाता है तथा केन्द्रक के अंदर अनेक प्रोटीनयुक्त रंगीन कण पाया जाता है जिसे निसिल्स कहते है।
(b) डेड्रॉन :- साइट्रॉन से निकले हुए पतले तंतु जो एक या अधिक होते है, उसे डेड्रॉन कहलाते है। यह बाह्य संवेदनओं को ग्रहण कर साइट्रॉनको देता है।
(c) एक्सॉन :- साइट्रॉन से प्रारंभ होकर एक बहुत पतला एवं लम्बा तंत्रिका तंतु निकलता है।  यह एक न्यूरॉन से दूसरे न्यूरॉन तक सन्देश वाहक का कार्य करता है।  इसे ही एक्सॉन कहते है।
(2) तंत्रिका तंतु :-  यह दो प्रकार की होती है।
(a) संवेदी  अथवाअभिवाही तंत्रिका तंतु :- ये आवेग को ग्राही अंगो से मस्तिष्क या मेरुरज्जु  जाती है।
(b) प्रेरक अथवा अपवाही तंत्रिका तंतु :- ये आवेग को मस्तिष्क या मेरुरज्जु से कार्य कारी अंगों में ले जाती है।
(3) न्यूरोग्लिया :- ये विशेष प्रकार की कोशिकाएँ  मस्तिष्क गुहाओं को स्तरीय करती है।
* तत्रिका तंत्र :- वह तंत्र जो सोचने, समझने तथा किसी चीज को याद रखने के साथ ही शरीर के विभिन्न्न अंगों के कार्यो में सांमजस्य तथा संतुलन स्थापित करने का कार्य करता है, उसे तंत्रिका तंत्र कहलाता है। तंत्रिका तंत्र संवेदी अंगों तंत्रिकाओं, मस्तिष्क, मेरुरज्जु एवं तंत्रिका कोशिकाओं का बना होता है।
इसका तीन भाग होते है।
(i) केंद्रीय तंत्रिका तंत्र
(ii) परिधिय तंत्रिका तंत्र
(iii) स्वायत या स्वाधीन तंत्रिका तंत्र 
(i) केंद्रीय तंत्रिका तंत्र :- तंत्रिका तंत्र का वह भाग जो सम्पूर्ण शरीर तथा स्वयं तंत्रिका तंत्र पर नियंत्रण रखता है। केंद्रीय तंत्रिका तंत्र कहलाता है। यह शरीर के मुख्य  अक्ष पर स्थिति होता है।  तथा दो अंगों का बना होता है।
(a) मस्तिष्क
(b) मेरुरज्जु
(a) मस्तिष्क :- मनुष्य का मस्तिष्क अत्यंत कोमल होता है। जोअस्थियों के खोल क्रेनियम इसे बाहरी आघातों से बचाता है।  इसके चारों ओर मेनिनसेस नामक आवरण पाया जाता है। जो तीन स्तरों का बना होता है इस आवरण या झिल्ली के सबसे बाहरी परत को डयूरोमैटर मध्य परत को एरेकनाइड तथा सबसे अंदर की परत को पायामैंटर कहते है।
Note:-मनुष्य का मस्तिष्क का वजन 1400 gm होता है।
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* मस्तिष्क के भाग :-
मस्तिष्क के तीन भाग है
(i) अग्र मस्तिष्क
(ii) मध्य मस्तिष्क
(iii) पश्च मस्तिष्क


*  मस्तिष्क स्टेम :- इसके अन्तर्गत पॉन्स वैरोलाई एवं मेडुला ऑब्लांगेट आता है।
* पॉन्स वैरोलाई :- तंत्रिका तंतुओं से निर्मित पॉन्स वैरोलाई मेडुला के अग्र भाग में स्थित होता है।  यह श्वसन को नियंत्रित करता है।
*मेडुला ऑब्लिगेटा :-यह एक बेलनाकार रचना होती है जो स्पाइलन कार्ड (मेरुरज्जु) के रूप में पाया जाता। मेरुरज्जु मस्तिष्क के पिछले शीरे से शुरू होकर रीढ़ के हड्डियों से न्यूरल कैनाल के अंदर से होता हुआ नीचे की ओर रीढ़ के अन्त तक फैला हुआ रहता है। इसके द्वारा अनैच्छिक क्रिया नियंत्रित होता है।
जैसे :-हृदय का धड़कना
(b) मेरुरज्जु :-मेडुला ऑब्लिगेटा का पिछला भाग मेरुरज्जु बनाता है। इसका अंतिम शिरा एक पतले सुत्र के रूप में होता है। इसके चारों ओर भी ड्यूरोमैटर एलेकनाइड तथा पायामैटर का बना आवरण पाया जाता है। यह बेलना कार खोखली तथा पृष्ठ एवं प्रतिपृष्ठ पर चपटी होती है।
इसके दो प्रमुख कार्य है।
(i) यह प्रतिवर्ती क्रियाओं का नियंत्रण एवं समन्वय करती है।
(ii) यह मस्तिष्क से आने - जाने वाले उद्दीपनों का संवहन करती है।
* सेटीबेलम :- इसके द्वारा ओच्छी पेशियाँ नियंत्रित होती है। जिसके फलसवरूप हाथ - पैर का प्रचलन सुचारु अंग से हो पाता है अगर सेटीबेलम नष्ट हो जाए तो उसकी औक्षीक पेशियाँ में अवरोध पैदा हो जाता है। जिससे जबड़ा ऊपर - नीचे सही ढंग से नहीं हो पाता है।
(i) अग्र मस्तिष्क :- यह मस्तिष्क का सबसे अगला भाग है।
इसका दो भाग है
(a) प्रमस्तिष्क (सेरीब्रम)
(b) डाईएनसेफलॉन
(a) प्रमस्तिष्क (सेरीब्रम) :- यह मस्तिष्क के शीर्ष पाश्र्व तथा पश्च भागों को ढँके रहता है। यह मस्तिष्क का सबसे बड़ा भाग है जो कुल मस्तिष्क का 2/3 भाग है।
 इसके गोलार्द्ध में अनेक अनियमिता कर उभरी हुई रचनाएँ होती है, जिन्हे गाइरस कहते है। दो गाइरसके बीच अवनमन वाले स्थान को सल्कस कहते है।
 कार्य :-
सेरीब्रम गोलार्द्ध, यादास्त, स्मरण, इच्छा शक्ति,जिज्ञासा, ज्ञानवाणी एवं चिंतन का केंद्र है, इसीलिए इसे बुद्धिमता का केंद्र कहते है। 
(b) डाईएनसेफलॉन :- यह भी अग्र मष्तिष्क का भाग है। जो सेरीब्रम गोलार्द्ध के द्वारा ढँका रहता है।
इसके दो भाग है :-थैलमस, हाइपोशैलमस।
*थैलमस का कार्य :-इसके द्वारा ठंडा ,गर्म एवं दर्द का अनुभव होता है।
*हाइपोथैलमस का कार्य :-इसके द्वारा अन्तः स्रावी ग्रंथियों द्वारा स्रावित होने वाली हार्मोन नियंत्रित होता है। ये भूख ,प्यास ,गुस्सा ,पसिना ,प्यार ,घृणा ,निंद आदि का नियंत्रण करता है।
*परानुकंपी तंत्रिका तंत्र :-यह युग्मित ,गैन्ग्लियोनिक श्रृंखला का बना होता है ,जो मस्तिष्क से आरंभ होता है तथा स्पाइनल कोर्ड के सेक्रेल भाग में भी उत्पन्न होता है। यह अनुकंपी तंत्रिका तंत्र के विपरीत कार्य करता है।
कार्य:-
(i)यह आँख की पुतली को सिकुड़ता है।
(ii)स्वेद ग्रंथियों से पसिने के स्राव को घटाता है।
(iii)यह लार ग्रंथियों के स्रवण को बढ़ाता है।
(iv)यह हृदय स्पंदन को घटाता है।
(v)यह रक्त में सर्करा के स्तर को कम करता है।
(vi)यह श्वसन दर को कम करता है।
(vii)इसकी क्रिया से बाल नहीं खड़े होते है।
(viii)यह रक्त दाब को कम करता है।
(ix)यह रुधिर में R.B.C के संख्या को कम करता है।
(x)इस तंत्रिका तंत्र का प्रभाव सामुहिक रूप से आराम एवं सुख की स्थितियां उत्पन्न करता है।

*प्रतिवर्ति क्रिया :-इन्हें स्पाइनल प्रतिक्षेप भी कहते है। यह बाह्य उद्वीपनों के प्रति होने वाली यंत्र बत तत्काल एवं अविवेचित अणु क्रिया जिसमें मस्तिष्क की कोई भूमिका नहीं होती है ,प्रतिवर्ति क्रिया कहलाती है।
  इस प्रकार की क्रिया में हम जो कुछ भी कहते है उन पर विचारों का नियंत्रण नहीं होता है।
जैसे:- घुटने का झटकना ,खाँसना ,ठंड से काँपना इत्यादि

*रासायनिक नियंत्रण एवं समन्यव

जो नियंत्रण एवं समन्यव की क्रिया रसायनिक पदार्थो द्वारा होता है उसे रासायनिक नियंत्रण एवं समन्यव कहते है।
*हार्मोन :-हार्मोन एक प्रकार का द्रव्य है जो अन्तः स्रावी ग्रंथियों से स्रावित होकर रुधिर में मिल जाता है।
*ग्रंथि :-कशेरूकी जंतुओं में तीन प्रकार की ग्रंथियाँ पाई जाती है।
(i)बहिःस्रावी ग्रंथि
(ii)मिश्रित ग्रंथि
(iii)अंतःस्रावी ग्रंथि
(i)बहिःस्रावी ग्रंथि :-शरीर की ऐसी ग्रंथियाँ जिनके द्वारा स्रावित स्राव को विभिन्न अंगो तक पहुँचाने के लिए वाहिनियाँ या नलिकाएँ होती है ,उसे बहिःस्रावी ग्रंथि कहते है।
इसके द्वारा एंजाइम का स्राव होता है।
स्वेद ग्रंथि ,आँसू ग्रंथि ,दुग्ध ग्रंथि ,लार ग्रंथि ,आदि।
(ii)मिश्रित ग्रंथि :-कुछ ग्रंथियाँ ऐसी होती है जो अन्तः स्रावी एवं बहिःस्रावी दोनों का कार्य करती है तो उसे मिश्रित ग्रंथि कहते है।
जैंसे :-अग्न्याशय
(iii)अंतःस्रावी ग्रंथि :-बहिःस्रावी ग्रंथि के विपरीत अन्तः स्रावी ग्रंथि नलिका बिहिन होती है ,अतः इन्हें अंतःस्रावी ग्रंथि कहते है।
 इसके द्वारा हार्मोन का स्राव होता है।
प्रमुख अंतःस्रावी ग्रंथि निम्न है।
(i)पियूष ग्रंथि
(ii)थाइराइड ग्रंथि
(iii)पाराथाइराइड ग्रंथि
(iv)एड्रिनल ग्रंथि
(v)अग्न्याशय
(vi)जनन ग्रंथि
(i)पियूष ग्रंथि :-यह कपाल के स्फेनाइड नामक हड्डी के एक गडे में स्थित होता है ,जिसे सेल टर्सीक कहते है। यह मानव शरीर के अंदर सबसे छोटी ग्रंथि है। जिसका वजन 0.6 ग्राम होता है। यह समस्त प्रकार के अंतःस्रावी ग्रंथि द्वारा स्रावित होने वाले हार्मोन का नियंत्रण करता है इसीलिए इसे मास्टर ग्रंथि भी कहा जाता है।
पियूष ग्रंथि द्वारा स्रावित होने वाले हार्मोन एवं अनेक कार्य :-
(i)S.T.H     (ii)L.T.H      (iii)G.T.H       (iv)T.S.H
(v)मिलैलीन  (vi)रिलैक्सिन

(i)S.T.H :-इसका पूरा नाम सोमैटो ट्रॉपिक हार्मोन है।
यह शरीर की वृद्धि विशेषता हड्डियों की वृद्धि को नियंत्रित करता है इस हार्मोन के अधिकता के कारण व्यक्ति आवश्यकता से अधिक लम्बा अर्थात भीमकाय हो जाता है।
        लेकिन इस हार्मोन की कमी के कारण व्यक्ति नाटा या बौना हो जाता है।
(ii)L.T.H :- Lacto Ganic Tropic Harmone
  यह दुग्ध जनक हार्मोन है।इस हार्मोन के द्वारा जब माता शिशु को जन्म देती है तब उनके स्तन में दुध का निर्माण होता है।
(iii)G.T.H :-Gonado Tropic Harmone
         यह हार्मोन जनन ग्रंथियों द्वारा स्रावित होने वाली हार्मोन  नियंत्रित करता है।
(iv)T.S.H :-Thyroid Stimulating Harmone
       यह थाइराइड ग्रंथियों द्वारा स्रावित होने वाले हार्मोन का नियंत्रण करता है।
(v)मिलैलिन :-इसके कारण व्यक्ति के त्वचा का रंग निर्भर करता है। व्यक्ति के शरीर या चेहरे पर तिल इसी के कारण होता है।
(vi)रिलैक्सिन :-जब माता अपने शिशु को जन्म देती है तब यह हार्मोन माता के प्रसव पीड़ा को बढ़ाता है ,जिससे की माता अपने शिशु का जन्म असानी से दे सके।
2.थाइराइड ग्रंथि(अवटु ग्रंथि):-मनुष्य में यह ग्रंथि द्विपिण्डक जैसी रचना होती है। यह ग्रंथि श्वासनली या ट्रैकिया के दोनों तरफ एवं लैरिक्स के निचे स्थित रहती है। इसे थाइरॉक्सिन नामक हार्मोन का स्राव होता है,जो आयोडीन की मात्रा को नियंत्रित करता है।
*थाइराइड का कार्य :-
(i)यह हार्मोन कोशिकीय श्वसन की गति को तीव्र करता है।
(ii)यह शरीर के सामान्य वृद्धि विशेषता हड्डियों ,बालों इत्यादि के विकाश के लिए अनिवार्य है।
(iii)यह पियूष ग्रंथि द्वारा स्रावित हार्मोन के साथ संयोग कर शरीर में जल का संतुलन करता है।
*थाइरॉक्सिन की कमी से होने वाला रोग :-
(i)जड़मानवता    (ii)मिक्सिडामा     (iii)हाइपोथाइरोडिज्म    (iv)घेंघा
(i)जड़मानवता :-यह बीमारी बच्चों में होती है ,जिससे बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास में अवरोध पैदा हो जाता है।
(ii)मिक्सिडामा :-यह बीमारी व्यस्क में होता है जिसमे उपपाचपय की क्रिया भली-भांति नहीं हो पति है।
(iii)हाइपोथाइरोडिज्म :-इस हार्मोन की लम्बे समय तक कमी के कारण व्यक्ति गुंगा एवं बहरा हो जाता है।
(iv)घेंघा :-यह बीमारी आयोडीन की कमी के कारण होता है। आयोडीन के प्राप्ति के लिए थाइराइड ग्रंथियाँ वृद्धि कर लटक जाती हैं इसीलिए इसे गलगड़ बीमारी कहते है।
3.पाराथाइराइड(पराअवटु) :-यह मटर की आकृति की पॉलीयुक्त ग्रंथियाँ है। ये थाइराइडग्रंथि के पीछे स्थित रहती है तथा कैल्सियम तथा फास्फोरस की मात्रा को नियंत्रित करती है।
*कार्य एवं हार्मोन :-
इसके दो प्रमुख हार्मोन है, जिसका कण इस प्रकार है।
(i)पैराथाइराइड हार्मोन :-यह हार्मोन उस समय मुक्त होता है जब रक्त में कैल्सियम की कमी हो जाती है।
(ii)कैल्सिटोनिन हार्मोन :-जब रक्त में कैल्सियम की मात्रा अधिक हो जाती है तब यह हार्मोन मुक्त होता है।
4.एड्रिनल ग्रंथि(अधिवृक्क) :-इस ग्रंथि को सुप्रारीनल ग्रंथि भी कहा जाता है। इसके दो भाग है।
(i)बाहरी भाग :-कार्टेक्स कहा जाता है।
(ii)अंदर भाग :-मेडुला  कहा जाता है।
कार्टेक्स द्वारा स्रावित होने वाले हार्मोन एवं उनके कार्य :-
(i)ग्लुकोकॉटिक्सवाईडस
(ii)मिनरलॉकॉटिक्सवाईडस
(iii)लिंगहार्मोन

(i)ग्लुकोकॉटिक्सवाईडस  :-भोजन उप्पाच्य में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। ये कार्बोहाइड्रेट ,प्रोटीन एवं वसा का उपापचय का नियंत्रण करते है। साथ ही साथ शरीर में जल की मात्रा का भी नियंत्रण करता है।
(ii)मिनरलॉकॉटिक्सवाईडस :-इनका मुख्य कार्य वृक्क नलिकाओं द्वारा लवण के पूर्ण अवशोषण एवं शरीर में अन्य लवणों का नियंत्रण करना है।
(iii)लिंगहार्मोन :-ये हार्मोन पेशियों तथा हड्डियों के परिवर्धन ,बाह्य लिंगो पर बालों को आने का प्रतिमान एवं यौन आचरण का नियंत्रण करते है।
मेडुला द्वारा स्रावित होने वाले हार्मोन एवं उनके कार्य :-
(i)एपिनेफ्रीन
(ii)नॉरएपिनेफ्रीन
:-ये दोनों साथ-साथ कार्य करता है तथा एमिनो एसिड के बने होते है ये हार्मोन क्रोध ,डर तथा मानसिक तनाव एवं व्यस्ता की स्थिति में स्रावित होता है।
      जब ह्रदय की धड़कने एका-एक रुक जाता है तो उसे पुनः चालू करने में एपिनेफ्रीन मदद करता है।
Note :-एड्रिनल ग्रंथि द्वारा स्रावित होने वाले हार्मोन को लड़ो एवं उड़ो हार्मोन कहा जाता है।
एड्रिनल ग्रंथि द्वारा स्रावित होने वाले हार्मोन को आपातकालिक(Emergency) हार्मोन कहा जाता है।
*जनन ग्रंथि :-जनन की प्रक्रिया में नर और मादा दोनों भाग लेते है। जिसमे मादा का प्रमुख जननाक अंडाशय तथा नर का प्रमुख भाग वृषण भाग लेता है।
*अण्डाशय :-अण्डाशय मादा का सबसे प्रमुख जननाक है,जिसमे मादा युग्मक अंडाणु का निर्माण होता है।
मादा जनक हार्मोन है :-एस्ट्रोजेन तथा प्रोजेस्टेरॉन
 *प्रोजेस्टेरॉन :-प्रोजेस्टेरॉन नामक हार्मोन के कारण मादा के स्तन में उभार पैदा होता है।
*वृषण :-वृषण नर का प्रमुख जाननांक है। इसमें न्र युग्मक शुक्राणु का निर्माण होता है।
 नर जनक हार्मोन :-टेस्टोस्टेरॉन
Note :-मादा में  टेस्टोस्टेरॉन नामक हार्मोन नहीं पाया जाता है जिसके कारण मादा में दाढ़ी एवं मूंछे नहीं उगती है।   


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