*ऊर्जा बैण्ड (Energy Band)
⇒किसी
परमाणु में इलेक्ट्रॉन अलग-अलग कक्षा में होते है और अलग-अलग कक्षा की ऊर्जा
अलग-अलग होती है। परन्तु नियत होती है।
किसी पदार्थ में परमाणुओं के समूह के कारण एक ही कक्षा के
इलेक्ट्रॉन की ऊर्जा आंशिक रूप से भिन्न होती है।
अर्थात,ऊर्जा एक परास में होता है और ऊर्जा के इसी परास को ऊर्जा
बैण्ड कहते है।
➤सबसे अंतिम पूर्ण रूप से भरे बैंड को संयोजी बैंड कहा
जाता है और इसके ठीक बाद वाले बैंड जो या तो आंशिक रूप से भरा होता है या फिर
पूर्णतः खाली होती है ,उसे चालन बैंड कहते है। संयोजी बैंड तथा चालन बैंड के बीच
ऊर्जा के अंतर को बैंड अंतराल कहा जाता है।
➠ऊर्जा बैंड के आधार पर पदार्थों का वर्गीकरण :-
1. चालक (Conductor)
2. अचालक (Insulator)
3. अर्द्धचालक
(Semi-Conductor)
1. चालक (Conductor):-वैसा
पदार्थ जिसके संयोजी बैंड एवं चालन बैंड के बीच ऊर्जा का अंतराल नगण्य हो,उसे चालक
कहा जाता है। चालक में एक बैंड का इलेक्ट्रॉन दूसरे बैंड में असानी से जाता है।
अतः चालक में मुक्त इलेक्ट्रॉन होते है।
2. अचालक (Insulator):-वैसा
पदार्थ जिसके संयोजी बैंड तथा चालन बैंड के बीच ऊर्जा का अंतर बहुत ही अधिक होता
है,उसे अचालक कहा जाता है। अचालक में एक बैंड का इलेक्ट्रॉन
दूसरे बैंड में नहीं जा सकता है। अतः इसमें मुक्त इलेक्ट्रॉन नहीं होते है।
3. अर्द्धचालक
(Semi-Conductor):-वैसा पदार्थ जिसके संयोजी बैंड तथा चालन बैंड के बीच
ऊर्जा का अंतर कम होता है,उसे अर्द्धचालक कहा जाता है।
परमशून्य ताप पर अर्द्धचालक का इलेक्ट्रॉन एक बैंड से
दूसरे बैंड में नहीं जा सकता है। अतः इस ताप पर अर्द्धचालक अचालक की तरह व्यवहार
करता है।
➤जब अर्द्धचालक के ताप को बढ़ाया जाता है तो ऊष्मा ऊर्जा के कारण अर्द्धचालक का इलेक्ट्रॉन एक बैंड से दूसरे बैंड में जा सकता है। और इस स्थिति में अर्द्धचालक, चालक की तरह व्यवहार करता है।
➠अर्द्धचालक के प्रकार(Types Of Semi-Conductor)
1. नैज अथवा
शुद्ध अर्द्धचालक(Intrinsic
or Pure Semi-Conductor)
2. बाह्य
अथवा अशुद्ध अर्द्धचालक(Extrinsic
or Impure Semi-Conductor)
1. नैज अथवा
शुद्ध अर्द्धचालक:-कार्बन ग्रुप के सभी तत्व (कार्बन को छोड़कर) शुद्ध अथवा नैज
अर्द्धचालक कहलाते है।
➤मुख्य रूप से सिलिकन तथा जर्मेनियम का उपयोग शुद्ध
अर्द्धचालक के रूप में होता है।
2. बाह्य
अथवा अशुद्ध अर्द्धचालक:-किसी शुद्ध अर्द्धचालक में आवश्यकता अनुसार अशुद्धि
मिलाने की प्रक्रिया को डोपिंग कहा जाता है। और स्थिति में प्राप्त अर्द्धचालक को
अशुद्ध अर्द्धचालक कहते है।
➠इसे पुनः दो भागों में बांटा गया है :-
i. p-Type अर्द्धचालक
ii. n-Type अर्द्धचालक
i. p-Type अर्द्धचालक:-जब किसी शुद्ध अर्द्धचालकमें त्रिसंयोजी अशुद्धि मिलाया जाता है तो इसे p-Type अर्द्धचालक कहा जाता है। इसमें होल अथवा कोटर की अधिकता होती है। होल अथवा कोटर धनावेशित(+) की तरह व्यवहार करता है।
ii. n-Type अर्द्धचालक:-जब किसी शुद्ध अर्द्धचालकमें पंचसंयोजी अशुद्धि मिलाया जाता है तो इसे n-Type अर्द्धचालक कहा जाता है। इसमें इलेक्ट्रॉन की अधिकता होती है। और इलेक्ट्रॉन ऋणावेशित होता है।
*p-n संधि (p-n Junction):-जब एक p-type अर्द्धचालकके शीरें को आपस में जोड़ा जाता है तो इसे p-n संधि कहा जाता है। संधि बिंदु पर एक इलेक्ट्रॉन तथा कोटर के प्रवाह का विरोध करता है।
*अभिनति(Biasing):-किसी p-n संधिमें
सेल जोड़ने की प्रक्रिया को अभिनति कहा जाता है।
➠यह दो प्रकार के होते है :-
i. अग्र
अभिनति (Forward
Biasing)
ii. उत्क्रम
अभिनति (Reverse
Biasing)
i. अग्र
अभिनति :- जब p-n संधि के p-Type अर्द्धचालक
को सेल के धनध्रुव से तथा n-Type अर्द्धचालक को सेल के ऋणध्रुव से जोड़ा जाता है तो इस
प्रकार के अभिनति को अग्र अभिनति कहा जाता है।
अग्र अभिनति में p-n संधि नष्ट हो जाता है और संधि से विधुत धारा का प्रवाह होने लगता है। विधुत धारा की दिशा p-type से n-type की ओर होती है।
ii. उत्क्रम
अभिनति :-जब p-n संधि के p-Type अर्द्धचालक
को सेल के ऋणध्रुव से तथा n-type अर्द्धचालक को सेल के धनध्रुव से जोड़ा जाता है। इस प्रकार
के अभिनति को उत्क्रम अभिनति कहा जाता है।
उत्क्रम अभिनति में p-n संधिऔर अधिक शक्तिशाली हो जाता है और विधुत धारा का प्रवाह नगण्य हो जाता है।
Note:-p-n संधि का
गलनांक बहुत ही कम होता है,जिसके कारण इसे अग्र अभिनति में उच्च विभवान्तर पर नहीं
जोड़ा जा सकता है,उच्च विभवान्तर पर जोड़ने पर धारा का मान अधिक होने से
ऊष्मा अधिक उत्पन्न होगी और p-n संधि गल जाएगा।
*डायोड(Diode):-यह एक ऐसी युक्ति है जिसमें धारा का प्रवाह केवल एक तरफ से होता है। p-n संधि को ही डायोड कहा जाता है इसे निम्न प्रकार से सूचित किया जाता है।
*फोटो
डायोड(Photo Diode)
⇒जब उचित
ऊर्जा वाला फोटॉन p-n संधि पर आपतित होता है तो प्रकाश विधुत प्रभाव के कारण
इलेक्ट्रॉन कोटर युग्म उत्पन्न होता है। जिससे p-n संधि की
चालकता बढ़ जाती है और p-n संधि से विधुत धारा का प्रवाह होने लगता है। और इस प्रकार
के p-n संधि को ही फोटो डायोड कहा जाता है।
यह उत्क्रम अभिनति पर आधारित है और विधुत धारा आपतित
प्रकाश की तीव्रता पर निर्भर करता है।
*प्रकाश
उत्सर्जक डायोड(Light
Emitting Diode)
⇒जब p-n संधि पर
चालन बैंड का इलेक्ट्रॉन संयोजी बैंड में आता है तो फोटॉन का उत्सर्जन होता है।
यदि फोटॉन का तरंगदैर्ध्य प्रकाश के तरंगदैर्ध्य के बराबर होता है तो p-n संधि पर
प्रकाश दिखाई पड़ता है। और इस प्रकार के p-n संधि को
ही LED कहा जाता है।
➤यह अग्र अभिनति पर आधारित है।
*जेनर डायोड
या भंजक डायोड (Zener
Diode)
⇒अग्र
अभिनति में p-n संधि से धारा की दिशा p से n की ओर
होती है परन्तु उत्क्रम अभिनति में विधुत धारा का मान नगण्य होता है।
जब उत्क्रम अभिनति में विभवान्तर के मान को लगातार बढ़ाया
जाता है तो एक निश्चित विभवान्तर पर विधुत धारा विपरीत दिशा में (n से p) अचानक बढ़
जाता है। इस प्रक्रिया को जेनर भंग कहा जाता है। और इस प्रकार के p-n संधि को
जेनर डायोड या भंजक डायोड कहा जाता है।
➤यह उत्क्रम अभिनति पर आधारित है इसमें धारा का मुख्य कारण p भाग का इलेक्ट्रॉन तथा n भाग का कोटर होता है।
*दिष्टकारी(Rectifier):-यह एक
ऐसी युक्ति है जिसके द्वारा प्रत्यावर्ती धारा (AC) को दिष्ट
धारा (DC) में परिवर्तित किया जाता है,इसमे
डायोड का प्रयोग होता है।
➠दिष्टकारी के प्रकार
1. अर्द्धतरंग
दिष्टकारी(Half Wave
Rectifier)
2. पूर्ण
तरंग दिष्टकारी(Full
Wave Rectifier)
1. अर्द्धतरंग
दिष्टकारी(Half Wave
Rectifier)
माना की A का विभव
शून्य है ,
पहले आधे चक्र में (v > o) बिंदु A उच्च
विभव पर होगा और बिंदु B निम्न विभव पर होगा। इस स्थिति में डायोड अग्र अभिनति में
होता है और विधुत धारा की दिशा C से E की ओर होती है।
दूसरे आधे चक्र में (v < o) बिंदु A निम्न
विभव पर होगा और बिंदु B उच्च विभव पर होगा। इस स्थिति में डायोड उत्क्रम अभिनति
में होता है। और विधुत धारा का मान शून्य होता है।
अर्थात,अर्द्धतरंग दिष्टकारी में केवल धनात्मक धारा प्रवाहित होती है जबकि ऋणात्मक वाला भाग शून्य हो जाता है। अतः प्राप्त धारा दिष्ट धारा होता है।
2. पूर्ण तरंग दिष्टकारी(Full Wave Rectifier)
माना की बिंदु A का विभव
शून्य है ,पहले आधे चक्र में (v >o) बिंदु A उच्च
विभव पर होगा जबकि बिंदु B निम्न विभव पर होगा। इस स्थिति में डायोड D1 अग्र
अभिनति में तथा डायोड D2 उत्क्रम अभिनति में होता है। और विधुत धारा की दिशा C से E की ओर
होती है।
अगले आधे चक्र में (V < O) बिंदु B उच्च
विभव पर होगा जबकि बिंदु A निम्न विभव पर होगा। इस स्थिति में डायोड D2 अग्र
अभिनति में होता है। जबकि डायोड D1 उत्क्रम अभिनति में होता है। और विधुत धारा की दिशा पुनः
C से E की ओर
होती है।
अर्थात, पूर्ण तरंग दिष्टकारी में केवल धनात्मक विधुत धारा प्राप्त होती है जो की दिष्ट धारा होती है। इसमें ऋणात्मक वाला भाग भी धनात्मक बन जाता है।
*ट्रांज़िस्टर
(Transistor)
⇒जब एक
प्रकार के अशुद्ध अर्द्धचालक के बीच दूसरे प्रकार के अशुद्ध अर्द्धचालक का पतला
परत बना दिया जाता है तो इसे ट्रांज़िस्टर कहा जाता है।
➠यह दो प्रकार के होते है :-
1. n-p-n Transistor
2. p-n-p Transistor
1. n-p-n Transistor :-जब n-type के अर्द्धचालक के बीच p-type अर्द्धचालक का पतला परत बना दिया जाता है तो उसे n-p-n Transistor कहा जाता है।
➠ट्रांज़िस्टर के भाग
1. उत्सर्जक
(Enittor)
2. आधार (Base)
3. संग्राहक
(Collector)
1. उत्सर्जक
(Enittor):-ट्रांज़िस्टर का वह भाग जिसमें अशुद्धि की मात्रा सबसे
अधिक होती है और जो इलेक्ट्रॉन अथवा कोटर को आधार की ओर उत्सर्जित करता है,उसे
उत्सर्जक कहा जाता है।
2. आधार (Base):-ट्रांज़िस्टर
का वह भाग जिसमें अशुद्धि की मात्रा सबसेकम होती है और साथ ही साथ मोटाई भी सबसे
कम होती है,उसे आधार कहा जाता है।
3. संग्राहक
(Collector):-ट्रांज़िस्टर का वह भाग जिसमें अशुद्धि की मात्रा उत्सर्जक
से कम होती है,परन्तु मोटाई उत्सर्जक से अधिक होती है। जो इलेक्ट्रॉन
तथा कोटर का संग्रह करता है ,उसे संग्राहक कहा जाता है।
*n-p-n ट्रांज़िस्टर
की क्रियाविधि
⇒किसी
ट्रांज़िस्टर में उत्सर्जक एवं आधार अग्र अभिनति में होता है जबकि आधार एवं
संग्राहक उत्क्रम अभिनति में होता है।
उत्सर्जक एवं आधार अग्रअभिनति में होने के कारण n-भाग का
इलेक्ट्रॉन आधार की ओर उत्सर्जित होती है और आधार को पार कर संग्राहक वाले क्षेत्र
में पहुँच जाता है। चुँकि आधार एवं संग्राहक उत्क्रम अभिनति में होता है। इसीलिए
संग्राहक आधार से आने वाले इलेक्ट्रॉन को अपनी ओर आकर्षित करता है ,इस
प्रकार ट्रांज़िस्टर के सभी भागों में विधुत धारा उत्पन्न हो जाती है।
क्रिरचॉफ के पहले नियम से ,
ट्रांजिस्टर का नियम :-
*∝ तथा β में सबंध :-
*लॉजिक
गेट(Logic Gates)
⇒यह एक
आंकिक परिपथ है जो निवेशी तथा निर्गत संकेतों के बीच तर्क संगत संबंधों पर आधारित
होता है।
➤मूल लॉजिक गेट की संख्या तीन है।
1. OR-gate
2. AND-gate
3. NOT-gate
1. OR-gate
➤OR-gate का सत्यता सारणी
➤OR-gate का वुलिय
व्यंजक
➤OR-gate का संकेत
2. AND-gate
3. NOT-gate
*NOR-gate
*NAND-gate
0 टिप्पणियाँ